कोई तीस साल पहले इलाहाबाद में एक नॉन-वेज शेर सुना था. सुना क्या था कंठस्थ कर लिया था. उसकी पहली लाइन कुछ इस तरह थी ‘शायरी खेल नहीं है यारों जिससे लौंडे खेलें.’ शेर की दूसरी पंक्ति लिखना, शिष्टाचार के पैमानों को लांघना होगा. जिन्हें याद है वो उसे दोहरा लें, जिन्हें नहीं पता…